Monday, October 18, 2021

ग़ज़ल

सहर होती जब खिड़की पे गौरैया की आहट सी होती है,
चहचहाती है वो, और चेहरे पे मेरे मुस्कराहट सी होती है। 

घर के बुज़ुर्ग से हैं ये दरख़्त, इनसे
काली रातों में भी जगमगाहट सी होती है। 

अभी दूर है आग, सोच के शजर मुस्कराता है, पर
चलती है जब हवा, पत्तियों में सरसराहट सी होती है। 

बिन मज़हब देखे सबसे एक सा रिश्ता निभाता है,
इसकी ठंडी छाँव में भी एक गरमाहट सी होती है। 

कबूतर, गौरैया, तोता, गिलहरी सबका आशियाना है,
ऐसी बुनियाद काट लेगा कोई, ये सोचने में भी घबराहट सी होती है। 

पर मिले हैं तो परिंदा उड़ेगा ही बेशक, पर न आया गर वापिस,
इन सूनी डालियों में भी छटपटाहट सी होती है। 

ये बढ़ते शहर देखकर 'मुकुंद' घबराहट सी होती है,
कुल्हाड़ी चलती है कहीं, कानों में मेरे झनझनाहट सी होती है। 

-- मुकुंद केशोरैया

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