Monday, October 18, 2021

ग़ज़ल

सहर होती जब खिड़की पे गौरैया की आहट सी होती है,
चहचहाती है वो, और चेहरे पे मेरे मुस्कराहट सी होती है। 

घर के बुज़ुर्ग से हैं ये दरख़्त, इनसे
काली रातों में भी जगमगाहट सी होती है। 

अभी दूर है आग, सोच के शजर मुस्कराता है, पर
चलती है जब हवा, पत्तियों में सरसराहट सी होती है। 

बिन मज़हब देखे सबसे एक सा रिश्ता निभाता है,
इसकी ठंडी छाँव में भी एक गरमाहट सी होती है। 

कबूतर, गौरैया, तोता, गिलहरी सबका आशियाना है,
ऐसी बुनियाद काट लेगा कोई, ये सोचने में भी घबराहट सी होती है। 

पर मिले हैं तो परिंदा उड़ेगा ही बेशक, पर न आया गर वापिस,
इन सूनी डालियों में भी छटपटाहट सी होती है। 

ये बढ़ते शहर देखकर 'मुकुंद' घबराहट सी होती है,
कुल्हाड़ी चलती है कहीं, कानों में मेरे झनझनाहट सी होती है। 

-- मुकुंद केशोरैया

Saturday, October 9, 2021

जीवन का रस

कचौड़ी ही परम सत्य है,
कंट्रोल्ड डाइट ही मिथ्या है,
जब पेट में चूहे करें नृत्य,
ऐसे में खीरा-ककड़ी खाना,
उन मासूमों की हत्या है।
 
जब जलेबी की मिठास ज़बान पे घुलती है,
क्या बताऊँ ज़िन्दगी कितनी हसीं लगती है। 
श्रीखंड, रसमलाई, मोहनथार,
यदि न खाओ दो-चार,
तो तय जानो अभी तुम,
समझे ही न हो जीवन का सार। 

सोनपपड़ी, बूंदी के लड्ड़ू में हाथ की कारीगरी महीन है,
उससे यदि मुँह फेरो तुम, तो ये
भारतीय कला की तौहीन है। 
समौसे को देखकर यदि मन न पिघले,
कैलोरी के सांसारिक आंकड़ों में उलझे,
तब बड़ी मुश्किल है भाई, लगता है
आपको किसी ने गीता नहीं समझाई।

शरीर तुच्छ और नश्वर है,
जो आत्मा को तृप्त करे,
वही पाता ईश्वर है। 
कढ़ाई से निकले पकौड़े में जो सत्व है,
यही साक्षात अमरत्व है। 

तो हे मानव, जो स्थूल व नश्वर है, उसकी चिंता छोड़,
जो पवित्र और सूक्ष्म है, ऐसी आत्मा को परमात्मा से जोड़। 

जब गुलाबजामुन का रस करता स्पर्श तुम्हारी जिह्वा,
जब गरमा-गरम गाज़र के हलवे की सुगंध लाती है हवा,
और फिर डाइट बीच में लाके तुम बिगाड़ते जो मज़ा,
तब कहता हूँ, और भी ग़म हैं ज़माने में घीया-तौरई के सिवा। 

-- मुकुंद केशोरैया

Wednesday, October 6, 2021

आशा का दीपक

जब बेहद घना हो जाये अँधेरा,
तब समझना, नज़दीक ही है सवेरा.
           छा सकता है भला कब तक ये अँधियारा,
           लाख धुंधलाए, पर होके रहता उजियारा.

जब तक है ह्रदय में आशा का दीप जलता,
पाषाण सदृश संकट भी है मोम सा पिघलता.
           गहरा सकती हैं भला कब तक ये आंधियां,
           खिलती धूप एक दिन, गुनगुनाती हैं वादियां.

जब तक 
है मन में सफलता का विश्वास, फिर भला
मार्ग के अवरोध कैसे कर सकते निराश.
           
प्रलय के ये बादल भला कब तक घिरते,
           बन के अमृत एक दिन खुद बरसते.

जब तक सत्य पर निष्ठा रहती अटूट,
लाख चमके मगर हारता एक दिन वो
 झूठ.
           ये दुखदाई भुजंग भला कब तक सबको लीलेगा,
           बन के महादेव कोई, एक दिन ये गरल पी लेगा.

-- मुकुंद केशोरैया