Monday, April 23, 2012

निर्भय

विवशता की इस घडी में भी,
पौरुष को महसूस कर पा रहा हूँ मैं,
तोड़ रहा था जो शरीर को कल तक,
वही दर्द आज धमनियों में उफान ला रहा है.
 ऐसा नहीं है कि जीवन से घृणा है मुझे,
ये आकर्षण है मृत्यु का, जो अपने पास बुला रहा है.

खींच रहा है पास अपने वो ढलता हुआ सूरज,
अंत निश्चित है,
पर नहीं है अंश लेशमात्र भी कायरता का.
और हो भी क्यों,
जीवन भर क्षितिज कि और भागने से बेहतर है,
ढलते सूर्य की और प्रस्थान.

एक कशिश है उस ढलते हुए सूरज में,
यह जीवन से पलायन नहीं,
यह तो स्वयं को उस निराकार से एकाकार करना है.
शायद यही जीवन का मर्म है, जीवन का अर्थ है,
जीवन-मोह को त्यागना,
सफल जीवन की पहली शर्त है.

Wednesday, January 18, 2012

बावरा मन

आज फिर कहीं दूर जाने को मन करता है,
ज़िन्दगी से मुंह चुराने को मन करता है.
न जाने क्यूँ होता है ऐसा,
जब खुद से ही सवाल करने को मन करता है.

इस अँधेरी काली रात में,
जब कि सवेरा नजदीक है, न जाने क्यूँ ये मन,
सवेरे के उजालेपन पर शक करता है.

अटल है नियम प्रकृति का, जानता है, समझता भी है,
फिर भी न जाने क्यूँ, ये बावरा मन, 
सूखे पेड़ को देखकर,
बसंत के यौवन पर शक करता है.

बरसता है यूँ तो हर साल ही,
पर न जाने क्यूँ इस बार ये मन,
जेठ की दुपहरी में तपकर,
सावन की गीली रातों पर शक करता है.

बचपन से पढ़ा, जाना, और समझा है,
आत्मा न कभी मरती है,
वह तो वस्त्रों की भांति शरीर बदलती है,
फिर भी न जाने क्यूँ, ये नादां मन,
ज़र्जर शरीर को देखकर,
आत्मा की अमरता पर शक करता है.