Thursday, December 30, 2021

जीवन यात्रा

अच्छा-बुरा, सुख-दुःख, जीत-हार,
सब मिलता है जीवन यात्रा में,
कुछ कम कुछ अधिक मात्रा में,
महत्व मात्रा का नहीं यात्रा का है,
आकर्षण मंज़िल का नहीं रास्ते का है।

मंज़िल तो अंत है - प्रयासों का, कर्मों का,
जीवन सार्थकता ध्येय में नहीं धारणा में है,
साध्य में नहीं साधना में है।
जीवन वो पंथ है - जिसपर महत्वपूर्ण हैं चलना,
चाहे दौड़ना, गिरना या गिर के संभलना, 
ज़रूरी है चलते रहना।

क्योंकि चलना ही मानव प्रकृति है,
मंज़िल पाके थम जाना विकृति है,
मंज़िल की ओर बढ़ता संघर्षरत मानव,
ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ कृति है।

-- मुकुंद केशोरैया

Tuesday, December 21, 2021

कश्मकश-ए-ज़िंदगी

ख़ौफ़ज़दा करने कई दफ़ा आई,
गौर से देखा तो वो न थी,
उसकी आहट थी आई,
रूप बदल कर आफतें बहुत सी आईं,
न आईं तो बस मौत न आई।
 
इम्तिहाँ इतने दिए मैंने कि इन्तिहाँ न रही कोई,
इतनी दफ़ा गिरा कि अब गिरने को ज़मीं न बची कोई,
अब पैरों के छालों को नहीं, हाथों में
किस्मत के बने जालों को सहलाता हूँ,
अब दर्द न सहूंगा ताउम्र, उखड़ जाएँगी साँसें जल्दी,
इस तरह मन को अपने बहलाता हूँ।  

मेरी तन्हाई से कभी रूबरू हो न सकी ये महफ़िल,
मेरा दर्द अंदर सिमटता रहा, मेरी आवाज़ बाहर घुटती रही,
मेरी ख़ामोशी पर उज्र न करो, मेरे जज़्बात पिन्हां रहने दो,
मत बांधो घाट मेरे साहिल पे, इस दरिया को तनहा बहने दो। 

गालियां खाना शग़ल है मेरा, न रोको ज़माने को,
कबूल है हर जुर्म मुझे, उन्हें खुल के कहने दो। 
उनकी अदालत में पैरवी करूँ, मुझे वो हक़ अदा ही नहीं,
मेरी ज़बान में वो लफ़्ज़ नहीं, मेरे साज़ में वो सदा ही नहीं। 

मैं अपनी नादानियों में मगरूर हुए बैठा हूँ,
या ज़माने के ज़ुल्मों से मजबूर हुए बैठा हूँ,
बैठा हूँ सजा पाके, क्या है ख़ता पता ही नहीं,
और तुमको समझा सकूं, ऐसी कोई तरकीब नहीं। 

ये दर्द मेरी ज़िन्दगी भर की कमाई है,
ये मंज़िल मैंने बड़ी मुश्किल से पाई है,
कैसे इक पल में इसको फ़ना कर दूँ,
जो मिले रहमतें ज़माने भर की इसके बदले,
खुद आगे बढ़ के सबको मना कर दूँ। 

--मुकुंद केशोरैया

Tuesday, December 7, 2021

बचपन वाला चाँद

दिल करता है,
फिर एक बार बचपन जी लूँ,
मासूम चमकती आँखों से,
फिर वही चाँदनी पी लूँ। 

पर पता नहीं क्यूँ,
इस चाँदनी में वो बात नहीं है,
दिल कहता है,
ये वो बचपन वाली रात नहीं है। 
मैं तो वही हूँ,
पर शायद ये वो कायनात नहीं है,
या शायद दुनिया वही है,
मेरे अंदर वो जज़्बात नहीं है। 

अब जो भी है, 
ये चाँद कुछ फीका सा नज़र पड़ता है,
पहले नर्म सा अंदर उतरता था जो, 
अब खंजर सा चलता है। 
ऐसी ही कहानी इन तारों की है,
खोई रवानी इन सारों की है। 
पहले जो शान से झिलमिलाते थे,
आसमाँ से ज्यादा आँखों में टिमटिमाते थे,
वो अब मुरझाये से रहते हैं,
न अपना दर्द किसी से कहते हैं। 

और मैं हैरान हूँ,
सुनके इनकी बात ज्यादा परेशान हूँ,
कहते हैं इस सूनेपन की दोषी हैं आपकी आँखें,
हम चाँद-तारों की चमक तो आज भी वही है,
श्रीमान, आप अपनी आँखों में झांके!

-- मुकुंद केशोरैया