Wednesday, January 18, 2012

बावरा मन

आज फिर कहीं दूर जाने को मन करता है,
ज़िन्दगी से मुंह चुराने को मन करता है.
न जाने क्यूँ होता है ऐसा,
जब खुद से ही सवाल करने को मन करता है.

इस अँधेरी काली रात में,
जब कि सवेरा नजदीक है, न जाने क्यूँ ये मन,
सवेरे के उजालेपन पर शक करता है.

अटल है नियम प्रकृति का, जानता है, समझता भी है,
फिर भी न जाने क्यूँ, ये बावरा मन, 
सूखे पेड़ को देखकर,
बसंत के यौवन पर शक करता है.

बरसता है यूँ तो हर साल ही,
पर न जाने क्यूँ इस बार ये मन,
जेठ की दुपहरी में तपकर,
सावन की गीली रातों पर शक करता है.

बचपन से पढ़ा, जाना, और समझा है,
आत्मा न कभी मरती है,
वह तो वस्त्रों की भांति शरीर बदलती है,
फिर भी न जाने क्यूँ, ये नादां मन,
ज़र्जर शरीर को देखकर,
आत्मा की अमरता पर शक करता है.