Tuesday, March 1, 2022

महाशिवरात्रि

चिर ज्योति अमर वंदन है,
नूतन प्रकाश अभिनंदन है।

मेरे उर में उल्लसित,
या कनक वन में पल्लवित,
दस दिशाओं में महक रहा,
इस माटी का चंदन है।
        नूतन प्रकाश अभिनंदन है॰॰॰

भ्रमर गीत में गुंजित,
या खग वाणी में कम्पित,
सब कंठों से बोल रहा,
ऋतुराज  का स्पंदन है।
        नूतन प्रकाश अभिनंदन है॰॰॰

चिर यौवन अभिलाषित,
या वसंत ऋतु से मद्मादित,
सूर्य, चंद्र जिससे वंचित,
यह जीवन वासंती कुंदन है।
        नूतन प्रकाश अभिनंदन है॰॰॰

डमरू, त्रिशूल, गरल कंठ शोभित,
या चिता भस्म में तिरोहित,
सर्व समावेशी, सृष्टि संहारक,
महादेव शिवनंदन है।
        नूतन प्रकाश अभिनंदन है॰॰॰

-- मुकुंद केशोरैया

Sunday, February 27, 2022

ग़ज़ल

जुम्मन के घर में फ़ाके की मार देखिए,
समाजवादी की प्लेट में पनीर लबाबदार देखिए।

अपनी चकाचौंध भरी दुनिया में देख सकें,
तो ग़रीब की आँखों का हाहाकार देखिए।

आए हैं विदेश से पढ़ कर नेताजी के लाड़ले,
इनकी अश्लील भाषा के अलंकार देखिए।

बड़ी रिश्वत वाला वो छोटा अफ़सर,
मिलती है उसको प्यार भरी फटकार देखिए।

जी भर कर कोसिए अपनी जननी को,
मिलता है तभी मैग्सेसे पुरस्कार देखिए।

सैफ़ई में फ़िल्मी नाच की झंकार देखिए,
रोशनी में जो दिखे वो अंधकार देखिए।

-- मुकुंद केशोरैया

Sunday, February 13, 2022

उत्साह

मैं तेज पुरुष, मैं दीप्त ज्योति, मैं उद्दाम ज्वाल सा जलता हूँ,
मैं लहरों पे सवार सागर में अठखेलियाँ भरता हूँ,
मैं बादलों पे चढ़ बवंडर से होड़ करता हूँ,
मैं घाम में जल पावक से मेल करता हूँ।

मुझको न आकांक्षा तट से नीर भरूँ मैं,
प्यारा मुझको गहरा सागर चाहे डूब मरूँ मैं,
जहाँ बरसे दुःख के बादल वहीं ठाँव बनाऊँ मैं,
बीच समंदर गहरे जल में एकल नाव चलाऊँ मैं।

मुझको क्या आज गिरूँ या कल गिर जाऊँ मैं,
जन्मा जिससे उस माटी में चाहे जब मिल जाऊँ मैं,
स्वच्छंद, स्वतंत्र, सृजन के गीत सुनाऊँ मैं,
संयमित, संकुचित, बनी लीक से ना प्रीत लगाऊँ मैं।

-- मुकुंद केशोरैया

Wednesday, February 2, 2022

Decolonization - कुछ विचार

पिछले कुछ समय से स्वतंत्रता संग्राम के योद्धाओं को वह सम्मान दिया जा रहा है जिसके वो हक़दार हैं। इसमें महात्मा गाँधी के अलावा और सेनानियों के योगदान को भी याद किया जा रहा है। महात्मा गाँधी निश्चित तौर पर न सिर्फ़ भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के, बल्कि २०वीं शताब्दी के सबसे प्रभावशाली व प्रतिष्ठित व्यक्तित्व में से एक हैं। भारत की स्वतंत्रता के पश्चात विश्व भर में हुए अनेकानेक आंदोलनों में गाँधी का प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखायी पड़ता है, चाहे वो अमेरिकी सामाजिक कार्यकर्ता मार्टिन लूथर किंग हों या दक्षिण अफ़्रीकी धार्मिक व मानवाधिकार कार्यकर्ता डेसमंड टूटू। अनेक देशों में राजनीतिक व सामाजिक आंदोलन आज भी गाँधी के दिखाए रास्ते पर चल रहे हैं। 

आज़ादी के बाद के कई दशकों में गाँधी की स्मृति में अनेकानेक कार्य किए गए, जिसमें सबसे अधिक व सबसे आसान कार्य था सड़कों व सरकारी प्रतिष्ठानों का गाँधी के नाम पर नामकरण करना। गाँधी की शिक्षाओं को सरकारी नीतियों में ढालना एक चुनौतीपूर्ण कार्य था जिससे सभी सरकारें बचती रहीं, इसलिए नामकरण का लोकलुभावन तरीक़ा अपनाया गया। आज यदि देखा जाए तो गाँधी के नाम पर ही देश में सबसे ज़्यादा सड़कें व सरकारी प्रतिष्ठान हैं। यह स्वाभाविक भी है। स्वतंत्रता संग्राम के अन्य सेनानियों को भी वही मान्यता, वही सम्मान, वही प्रतिष्ठा मिलनी चाहिए इसमें कोई संदेह नहीं है, परंतु जिस प्रकार सूर्य के सामने बाक़ी सितारे छिप जाते हैं, उसी प्रकार एक समय, एक काल में जीवित रहे व्यक्तियों में कोई सूर्य ज़्यादा चमकता प्रतीत होता है। अब इसमें समस्या कहाँ आती है, इसको एक उदाहरण से समझा जा सकता है - भारतीय क्रिकेट के 1990 व 2000 के दशक का सबसे जाना-पहचाना नाम सचिन तेंदुलकर है। एक समय ऐसा था जब सचिन के साथ टीम में राहुल द्रविड़, सौरभ गांगुली व वी वी एस लक्ष्मण जैसे महान खिलाड़ी भी होते थे। पर उनके योगदान को शायद वो श्रेय नहीं मिला जिसके वो हक़दार थे। ये शायद ग़लत है पर स्वाभाविक भी है (आख़िरकार सचिन का रेकोर्ड सबसे बेहतर है)। पर स्थिति यहीं तक रहे तो भी ठीक है। समस्या तब शुरू होती है जब सचिन तेंदुलकर के बच्चों को राहुल द्रविड़ और सौरभ गांगुली से महान बताया जाने लगे, और उनके नाम पर स्मारक बनाए जाने लगे। बिलकुल ऐसा ही कुछ, पिछले कई दशकों से होता आ रहा है। एक परिवार पीढ़ी दर पीढ़ी अपने ही नामों पर स्मारक बनवाए जा रहा है। 

आज़ादी के कई दशक बाद तक हम सरदार पटेल, सुभाष चंद्र बोस, वीर सावरकर आदि को वो सम्मान और पहचान नहीं दे सके जो हमने जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी और राजीव गाँधी को दी। देश की प्रगति में इनका भी योगदान रहा है, पर क्या इनका योगदान प्राचीन भारत के अन्य महान व्यक्तियों से ज़्यादा है? भारत जैसा विशाल और प्राचीन राष्ट्र किसी एक परिवार की बपौती नहीं हो सकता। क्या ये शर्म की बात नहीं कि एक ऐसा देश जिसका इतिहास पाँच हज़ार साल से भी पुराना है उस देश की राजधानी के हवाई अड्डे का नाम इंदिरा गांधी के नाम पर है। क्या हमारे पाँच हज़ार साल के इतिहास में इंदिरा गाँधी सबसे महान व्यक्तित्वों में से एक हैं? थाईलैंड की राजधानी बैंकौक के हवाई अड्डे का नाम है स्वर्ण भूमि हवाई अड्डा। सोने की चिड़िया तो हमारा देश था, पर हम उसे भूल बैठे हैं। देश के हर शहर में इंदिरा चौक, राजीव चौक हमारे समृद्ध इतिहास की अन्य महान शख़्सियतों को मुँह चिड़ा रहे हैं। ज़िलों के सरकारी कार्यालयों के नाम राजीव भवन, इंदिरा भवन और जवाहर भवन हैं। क्या Administrative, Bureaucratic क्षेत्र में देश के इतिहास में कोई और प्रतिष्ठित व्यक्ति नहीं है? क्या हम इनका नाम इतिहास के महानतम राजनीतिक गुरुओं में से एक कौटिल्य या सर्वकालिक महानतम राजा चंद्रगुप्त विक्रमादित्य के नवरत्नों के नाम पर नहीं रख सकते?

अब समय आ गया है जब हमें आज़ादी के सभी महानायकों को उचित सम्मान दिलाना चाहिए। ऐसा होने पर हम decolonization की तरफ़ एक ठोस कदम बढ़ाएँगे। लेकिन हमें decolonization से भी परे देखने की आवश्यकता है। अभी हमारी दृष्टि britishers के दृष्टिकोण से बनी हुई है, यही कारण है हमारे ज़्यादातर नायक स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास से जुड़े हुए हैं। जिस दृष्टि से हम स्वयं को देखते हैं, दुनिया भी हमें वैसी ही दृष्टि से देखती है। अभी हमारी नज़रिये में एक bias (दोष) है जिसको Recency bias कहते हैं। भारत इसी Recency bias से गुजर रहा है, जहां हम आज़ादी तक के कालखंड को तो महत्व देते हैं, उससे पहले के इतिहास को नहीं। हज़ारों वर्ष के इतिहास के लम्बे कालखंड में सौ-दौ सौ वर्ष कोई बहुत अधिक समय नहीं होता। हमारे इतिहास की हाल की सबसे महत्वपूर्ण घटना निस्संदेह स्वतंत्रता है, परंतु भारत अमेरिका या यूरोप की तरह कोई 500-1000 वर्ष पुराना राष्ट्र नहीं है। हमारे इतिहास में और भी महान घटनाएँ घटित हुई हैं, एक से बढ़कर एक महान हस्तियाँ यहाँ रहीं हैं, जिस सब से हम मुँह मोड़े बैठे हैं। 

हमारे मन में, हमारे आचार-विचार में, हमारे सामाजिक-राजनीतिक विमर्श में स्वतंत्रता संग्राम का एक hangover दिखाई देता है, जिसके कारण हम अपने इतिहास में अपनी आज़ादी से पीछे के दौर में नहीं जा पाते हैं। अन्यथा क्या कारण है कि आदिगुरु शंकराचार्य जैसे सर्वकालिक तेजवान और प्रखरशील व्यक्तित्व को हमने उचित पहचान नहीं दी। जब हम ही उन्हें सम्मान नहीं दे सके, तो दुनिया क्या उनके ज्ञान को स्वीकारेगी। क्यों दिल्ली की किसी लोकप्रिय सड़क या संस्था का नाम उनके नाम पर नहीं? क्यों ऋषि वशिष्ट, विश्वामित्र, अगस्त्य आदि का नाम देश की राजधानी या किसी और बड़े शहर में दिखाई नहीं देता? जब कोई विदेशी पर्यटक आता है तो उसे सिर्फ़ मुग़लिया इतिहास ही दिखाई देता है, तो वो यही समझेगा कि भारत का इतिहास कुछ 600-700 वर्ष पुराना है, उससे पहले कुछ नहीं था।अब जाके शंकराचार्य की एक प्रतिमा केदारनाथ मंदिर के बाहर स्थापित की गई है, वो भी एक धार्मिक स्वरूप के तौर पर, अगर सार्वजनिक संस्था उनके नाम पर बनाई जाए तब तो तथाकथित विद्वान (woke) लोग फाँसी लगा लेंगे! (अवॉर्ड तो वापस कर ही देंगे!)

अपने प्राचीन इतिहास को पूर्ण महत्व ना देने का एक कारण तुष्टिकरण की राजनीति भी रही है।मध्य-युगीन व आधुनिक भारत का इतिहास अनेक धर्मों-सम्प्रदायों से मिलकर बना है, यह कहने में मुझे कोई संकोच नहीं है, किंतु यह भी एक सत्य है कि भारत का प्राचीन इतिहास हिंदुत्व की बुनियाद पे खड़ा है। इतिहास को बैलेन्स करने के चक्कर में हम प्राचीन इतिहास को कहीं आने ही नहीं देते। क्यों हमारे मेडिकल कोर्सेज़ में चरक, सुश्रुत, च्यवन, धनवांतरि आदि के विषय में नहीं पढ़ाया जाता, क्यों हमें engineering और architecture में सप्तऋषि, ब्रम्हगुप्त  और प्राचीन वैदिक विज्ञान नहीं पढ़ाया जाता? अब ये सब हिंदू थे तो इसमें शर्म कैसी। क्या ये सत्य नहीं है कि प्राचीन भारत में हिंदू सभ्यता सबसे पहले जन्मी थी। Indonesia जैसा मुस्लिम देश तो अपने देश की national airlines का नाम 'गरुड़' रख सकता है, पर हम नहीं क्योंकि हम सेक्युलर हैं! ये क्या मज़ाक़ है! हमारे किसी medical या engineering कॉलेज का नाम इंदिरा गाँधी, राजीव गाँधी के नाम पर नहीं, और पटेल या सावरकर के नाम पर भी नहीं होना चाहिए। हमें खुली दृष्टि रखते हुए अपने पूरे इतिहास को टटोलना चाहिए और फिर किसी प्रासंगिक शख़्सियत का नाम ऐसे प्रतिष्ठान से जोड़ना चाहिए।

अब एक और उदाहरण देखिए - अंडमान निकोबार द्वीप समूह का नाम आते ही दिमाग़ में जो छवि आती है वो या तो वीर सावरकर की है या नेताजी सुभाष चंद्र बोस की। वीर सावरकर ने अंडमान की जेल में १३ वर्ष बिताए और नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने जापानी सेना के साथ मिलकर अंडमान के द्वीपों को अंग्रेजों से आज़ादी दिलायी। अब यदि आप अंडमान जाएँ तो सेल्युलर जेल के पास समुद्र के किनारे मरीना पार्क में राजीव गाँधी की विशाल प्रतिमा देख कर अपना सिर धुन लेंगे। अभी आगे और देखिए - यह प्रतिमा जिस परिसर में है, उसका नाम राजीव गाँधी वॉटर स्पोर्ट्स कॉम्प्लेक्स है। पास में ही महात्मा गाँधी मरीन नैशनल पार्क भी है। निकोबार द्वीप पर दक्षिण में भारत के सबसे आख़िरी बिंदु का नाम है इंदिरा पोईंट। यह तो वही बात हुई की जिस मैदान में कुम्बले ने १० विकेट लिए वहाँ सचिन तेंदुलकर के बेटे के नाम पर स्टैंड बना दिया! मूर्खता और चापलूसी की भी हद्द होती है!

पर अब समय आ चुका है, और इसमें लेशमात्र भी संदेह नहीं होना चाहिए कि भारत अपने वास्तविक स्वरूप को पहचानेगा। ये तो होकर ही रहेगा इसको कौन रोक सकता है। अभी जो मोदी सरकार ने शुरू किया है, ये तो सिर्फ़ शुरुआत भर है, अभी तो बहुत सी खोई पहचान पानी बाक़ी हैं, बहुत नाम भी बदले जाने बाक़ी हैं। कुछ तथाकथित विद्वान (woke) ज़रूर ज्ञान देंगे कि नाम बदलने से क्या होगा, क्या उससे कोई विकास होगा, किसी गरीब को रोटी मिलेगी। यदि आपके घर पे कोई क़ब्ज़ा कर ले और आपका नाम रावण और आपकी बहन का नाम सुपर्णखा रख दे, तो उससे आज़ाद होने के बाद आप अपना नाम पहले बदलोगे या अपना विकास पहले करोगे। स्वाभिमान पहले है, और जहां राष्ट्र के स्वाभिमान की बात हो, वहाँ तो बाक़ी अन्य सब बातें बहुत छोटी मालूम पड़ती हैं। To be continued.....
जय भारत! जय माँ भारती!

-- मुकुंद केशोरैया


Thursday, January 27, 2022

माता-पिता

तेरे एक कदम की ख़ातिर कितने सपने संजोए होंगे,
तुझे चलता देखने को कितने सुख-चैन खोए होंगे।

तुझे आलोकित करने को जाने कितनी रातें काली कीं,
अपने दिनों में उनकी भी इच्छाएँ मतवाली थीं,
किंतु सकल स्वप्न जीवन के, तेरे ऊपर वार दिए,
कर शमन इच्छाओं का, सर्वस्व तुझपे हार दिए।

निस्वार्थ वात्सल्य में जाने क्या पा जाते हैं,
जीवन की तेरी कटुता को मधु समझ खा जाते हैं,
अपनी सूनी आँखों से आँसू भी पी जाते हैं,
तेरे जीवन की खुलती तुरपाई,
वो बिना बताए सी जाते हैं।

-- मुकुंद केशोरैया

Tuesday, January 25, 2022

तेरा वैभव अमर रहे

सौ बार जियूँ, सौ बार मरूँ,
न मिले मोक्ष तो भी न डरूँ।
आन पड़े जब आन पर,
निज प्राण तुरत न्योछावर करूँ।

सांसारिक क्षणिक प्रलोभन क्या,
निज चमक-दमक में शोभन क्या,
यदि मिल जाए सम्पदा अपार,
फलता-फूलता हो व्यापार,
तब भी ठुकरा दूँ सकल संसार।

लक्ष्य मात्र एक रहे,
मैं दिन चार रहूँ ना रहूँ,
माँ तेरा वैभव अमर रहे।

-- मुकुंद केशोरैया

Saturday, January 22, 2022

फ़न की ताक़त

मैं अपने फ़न को आवाज़ बना लूँगा,
कलम को अपनी साज़ बना लूँगा,
ग़र दफ़न भी कर दोगे मेरे जिस्म को,
मैं अपनी रूह को अल्फ़ाज़ बना लूँगा।

मेरी नाकामी पे हंसने वालों,
मैं अपने अंजाम को आग़ाज़ बना दूँगा,
गिर कर उठने को अपना अन्दाज़ बना दूँगा,
ग़र ज़मींदोज़ भी कर दोगे मिट्टी में मुझे,
मैं इसी मिट्टी से अपना ताज बना लूँगा।

मैं अपने अहसासों को अरबाज़ बना लूँगा,
तहरीर को अपनी दिलेर-जाँबाज़ बना लूँगा,
ग़र छीन भी लोगे मेरे चेहरे से हँसी,
मैं अपने अशआर को ख़ुशमिज़ाज बना लूँगा।

-- मुकुंद केशोरैया

Friday, January 21, 2022

इस दर्द की कोई शाम नहीं

इस दिल को कहीं आराम नहीं,
इस दर्द की कोई शाम नहीं,
रह-रहकर हूक उठती है,
ज़ुबान हो मूक सब सहती है।

क्या मैंने पाया, क्या गँवाया है,
ग़म की दुनिया में बस दर्द कमाया है,
चीर दे जो सीने को ऐसा फ़साना है,
झूठे हैं सारे कहकहे, हँसना-हँसाना है।
            इस दिल को कहीं आराम नहीं,
            इस दर्द की कोई शाम नहीं।

किसी से गिला ना कोई शिकवा है,
मेरी क़िस्मत ही जब मुझसे रुसवा है,
मेरी फ़ितरत तो यूँ ग़मगीन न है,
पर ज़िंदगी बेहद संगीन यहाँ है।
            इस दिल को कहीं आराम नहीं,
            इस दर्द की कोई शाम नहीं।

ख़ामोश रहता हूँ, दर्द से बिलबिलाता हूँ,
मसनूयी मुलाक़ातों की ख़ातिर खिलखिलाता हूँ,
खुद चेहरे पे अपने नक़ाब रखता हूँ, इसलिए
हिचक से मिलता औ पहले परखता हूँ।
            इस दिल को कहीं आराम नहीं,
            इस दर्द की कोई शाम नहीं।

ये क़िस्सा कहाँ समझेगा कोई ज़माने में,
सब हैं मसरूफ अपना हिसाब लगाने में,
मेरे क़र्ज़ की किश्तें भला कोई क्यूँ भरेगा,
मेरे मर्ज़ की दवा भला कोई क्यूँ करेगा।
            इस दिल को कहीं आराम नहीं,
            इस दर्द की कोई शाम नहीं।

-- मुकुंद केशोरैया

Tuesday, January 11, 2022

गीत

हार को जीत अपनी बनाता रहा,
राह के पत्थरों से द्वार सजाता रहा,
जीना जब भी दूभर सा लगने लगा,
करके एक-एक कदम बढ़ाता रहा।

शब्द-सागर में गोते लगाता रहा,
चुनके मोती कुछ कंकड़ भी लाता रहा,
डूबने सा लगा जब भँवर जाल में,
तिनकों को सहारा बनाता रहा।

शब्द भी जब अर्थ खोने लगे,
भाषा भी जब व्यर्थ लगने लगे,
शून्य से जब विमर्श होने लगे,
भावनाओं को समर्थ बनाता रहा।

जीवन आकर्षण जब-जब मोहने लगा, 
विरह की सोच दिल भी रोने लगा,
मन भी धीरज धीरे से खोने लगा,
मन में आशा के मनके पिरोते रहा।

-- मुकुंद केशोरैया

Thursday, January 6, 2022

पुरुषार्थ

भिक्षा में नहीं यहाँ अधिकार मिलता है,
लाख करो मिन्नतें कहाँ निर्दयी पिघलता है,
चंद टुकड़ों में बिक जाता हो ईमान जहाँ,
वहाँ कौन शोषित की पीड़ा समझता है।

पर पुरुष के पुरुषार्थ से पिघलता पाषाण भी,
कर्मठता से होते वश में मृत्यु भी प्राण भी,
निष्कपट कर्म करता चले जो नर,
पुकार सुन उसकी उतर आते भगवान भी।

कर्म ही जिसका एकमात्र सखा हो,
प्रलोभनों से बचकर ध्येय निश्छल रखा हो,
जानता है मोल वही मधु का,
जिसने पग-पग घूँट कड़वा चखा हो।

प्रकृति न नियम विरुद्द आचरण करती है,
वह तो सदा पुरुषार्थ का ही वंदन करती है,
जो रखता विश्वास अटूट अपनी भुजाओं पर,
उस वीर के कपाल ही मुकुट धरती है।

वीर पुरुष न किसी की राह तकता है,
वह अपने मार्ग, अपनी लीक चलता है,
प्रलोभनों से न होता विचलित वो,
पाँव से अपने पत्थर पे चिन्ह गड़ता है।

-- मुकुंद केशोरैया