Sunday, August 8, 2021

ग़ज़ल

जो बचपन पीछे छूटा, एक संजीदगी सी आती गई,
खिंचती गई माथे पे लकीरें, आँखों की शरारत जाती रही।

चले थे सफ़र पे, हासिल करने मंज़िले कई,
हर पड़ाव पे मिला वो नीम, जो छांव देता रहा, थकन मिटती गई।

भीड़ से आगे बढ़े, पर गुमशुदा ना हुए,
भला हो कुछ पुरानी यादों का, जो डोर से बांधी रहीं।

ज़ईफों से अदब, बचपन का सबक है, उन्हीं की रहमतों का सबब है,
जो गुल शिगुफ़्ता होते रहे, किस्मत चमकती रही।

चराग-ए-राह बनके जला, तब सुकूँ आया,
जो शमाँ ने भरी परवाज़, ख़लिश मिटती गई।

जज़्बातों के आहंग को शब्द देता रहा 'मुकुंद',
मिसरे आते रहे, गज़ल बनती गई।

-- मुकुंद केशोरैया

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