Sunday, August 1, 2021

सहर

अब कोई जुस्तज़ू, आरज़ू न रही कोई,

इस सफर में सब सिफर है, न रुसवाई, न उन्स है कोई।


ग़मों से रहा वाबस्ता जीवन मेरा, संघर्षों की धूप में कुम्हलाता रहा गुलिस्तां मेरा,

पर अब ये दरख़्त जड़ें जमा लेगा, बरसा है पानी, बनके फरिश्ता मेरा।


अब कोई और नवाज़िश ना कर भले, फक़त इतना कर दे,

उम्र भले बढे मेरी, मुझमें बचपन सी मासूमियत भर दे। 


मयस्सर नहीं हुई नींद मुझे, मुकम्मल नहीं हुआ ख्वाब मेरा,

मुन्तज़िर हूँ इस तसव्वुर में, कि हो अंदाज़े-बयाँ मुख़्तलिफ़ मेरा। 


ये तो अपनी रवायत है, थमना, संभलना, सबर करना,

रखते हैं सरफ़रोशी का जज़्बा, हमें आता है रात को सहर करना।


मिटा दूँ निशाँ हर एक ज़ुल्म का, बदलूँ हक़ीक़त में ये सपना,

एक बार जो माँ रख दे, सिर पे मेरे हाथ अपना। 


-- मुकुंद केशोरैया  

4 comments:

  1. Wow bhaiya ji super duper nice👌👌👌👌👌

    ReplyDelete
  2. Wonderful mukund..filled with emotion and feeling..keep it up and keep writing...hope to own a book written by you..
    God bless

    ReplyDelete