Monday, September 13, 2021

चंद अशआर

दिए जले पर उजाला न हो पाया,
झोंपड़ी में अँधेरे का मुंह काला न हो पाया। 

समाजवाद का नारा लगाया था बड़ी उम्मीदों से,
पर गरीब की किस्मत का ताला न खुल पाया। 

खाली मर्तबान में उड़ेल दिया पानी उसने,
पर भूख का वो जिद्दी एहसास न घुल पाया।  

तमाम उम्र किस्मत चमकाता रहा वो,
ग़रीबी का दिया वो दाग न धुल पाया। 

बड़ी उम्मीदों से बुने थे कुछ ख्वाब उसने,
जागा, तो उसी बुनाई में खुद को उलझा हुआ पाया। 

एक ख्वाबों से ही तो दुनिया बड़ी थी उसकी,
वरना वक़्त ने जब भी टटोला, उसे मामूली ही पाया।  

- मुकुंद केशोरैया

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