मैं अपने फ़न को आवाज़ बना लूँगा,
कलम को अपनी साज़ बना लूँगा,
ग़र दफ़न भी कर दोगे मेरे जिस्म को,
मैं अपनी रूह को अल्फ़ाज़ बना लूँगा।
कलम को अपनी साज़ बना लूँगा,
ग़र दफ़न भी कर दोगे मेरे जिस्म को,
मैं अपनी रूह को अल्फ़ाज़ बना लूँगा।
मेरी नाकामी पे हंसने वालों,
मैं अपने अंजाम को आग़ाज़ बना दूँगा,
गिर कर उठने को अपना अन्दाज़ बना दूँगा,
ग़र ज़मींदोज़ भी कर दोगे मिट्टी में मुझे,
मैं इसी मिट्टी से अपना ताज बना लूँगा।
मैं अपने अहसासों को अरबाज़ बना लूँगा,
तहरीर को अपनी दिलेर-जाँबाज़ बना लूँगा,
ग़र छीन भी लोगे मेरे चेहरे से हँसी,
मैं अपने अशआर को ख़ुशमिज़ाज बना लूँगा।
-- मुकुंद केशोरैया
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