हार को जीत अपनी बनाता रहा,
राह के पत्थरों से द्वार सजाता रहा,
जीना जब भी दूभर सा लगने लगा,
करके एक-एक कदम बढ़ाता रहा।
जीना जब भी दूभर सा लगने लगा,
करके एक-एक कदम बढ़ाता रहा।
शब्द-सागर में गोते लगाता रहा,
चुनके मोती कुछ कंकड़ भी लाता रहा,
डूबने सा लगा जब भँवर जाल में,
तिनकों को सहारा बनाता रहा।
शब्द भी जब अर्थ खोने लगे,
भाषा भी जब व्यर्थ लगने लगे,
शून्य से जब विमर्श होने लगे,
भावनाओं को समर्थ बनाता रहा।
जीवन आकर्षण जब-जब मोहने लगा,
विरह की सोच दिल भी रोने लगा,
मन भी धीरज धीरे से खोने लगा,
मन में आशा के मनके पिरोते रहा।
मन भी धीरज धीरे से खोने लगा,
मन में आशा के मनके पिरोते रहा।
-- मुकुंद केशोरैया
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