इस दर्द की कोई शाम नहीं,
रह-रहकर हूक उठती है,
ज़ुबान हो मूक सब सहती है।
क्या मैंने पाया, क्या गँवाया है,
ग़म की दुनिया में बस दर्द कमाया है,
चीर दे जो सीने को ऐसा फ़साना है,
झूठे हैं सारे कहकहे, हँसना-हँसाना है।
इस दिल को कहीं आराम नहीं,
इस दर्द की कोई शाम नहीं।
किसी से गिला ना कोई शिकवा है,
मेरी क़िस्मत ही जब मुझसे रुसवा है,
मेरी फ़ितरत तो यूँ ग़मगीन न है,
पर ज़िंदगी बेहद संगीन यहाँ है।
इस दिल को कहीं आराम नहीं,
इस दर्द की कोई शाम नहीं।
ख़ामोश रहता हूँ, दर्द से बिलबिलाता हूँ,
मसनूयी मुलाक़ातों की ख़ातिर खिलखिलाता हूँ,
खुद चेहरे पे अपने नक़ाब रखता हूँ, इसलिए
हिचक से मिलता औ पहले परखता हूँ।
इस दिल को कहीं आराम नहीं,
इस दर्द की कोई शाम नहीं।
ये क़िस्सा कहाँ समझेगा कोई ज़माने में,
सब हैं मसरूफ अपना हिसाब लगाने में,
मेरे क़र्ज़ की किश्तें भला कोई क्यूँ भरेगा,
मेरे मर्ज़ की दवा भला कोई क्यूँ करेगा।
इस दिल को कहीं आराम नहीं,
इस दर्द की कोई शाम नहीं।
-- मुकुंद केशोरैया
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