Thursday, January 6, 2022

पुरुषार्थ

भिक्षा में नहीं यहाँ अधिकार मिलता है,
लाख करो मिन्नतें कहाँ निर्दयी पिघलता है,
चंद टुकड़ों में बिक जाता हो ईमान जहाँ,
वहाँ कौन शोषित की पीड़ा समझता है।

पर पुरुष के पुरुषार्थ से पिघलता पाषाण भी,
कर्मठता से होते वश में मृत्यु भी प्राण भी,
निष्कपट कर्म करता चले जो नर,
पुकार सुन उसकी उतर आते भगवान भी।

कर्म ही जिसका एकमात्र सखा हो,
प्रलोभनों से बचकर ध्येय निश्छल रखा हो,
जानता है मोल वही मधु का,
जिसने पग-पग घूँट कड़वा चखा हो।

प्रकृति न नियम विरुद्द आचरण करती है,
वह तो सदा पुरुषार्थ का ही वंदन करती है,
जो रखता विश्वास अटूट अपनी भुजाओं पर,
उस वीर के कपाल ही मुकुट धरती है।

वीर पुरुष न किसी की राह तकता है,
वह अपने मार्ग, अपनी लीक चलता है,
प्रलोभनों से न होता विचलित वो,
पाँव से अपने पत्थर पे चिन्ह गड़ता है।

-- मुकुंद केशोरैया

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