Thursday, January 27, 2022

माता-पिता

तेरे एक कदम की ख़ातिर कितने सपने संजोए होंगे,
तुझे चलता देखने को कितने सुख-चैन खोए होंगे।

तुझे आलोकित करने को जाने कितनी रातें काली कीं,
अपने दिनों में उनकी भी इच्छाएँ मतवाली थीं,
किंतु सकल स्वप्न जीवन के, तेरे ऊपर वार दिए,
कर शमन इच्छाओं का, सर्वस्व तुझपे हार दिए।

निस्वार्थ वात्सल्य में जाने क्या पा जाते हैं,
जीवन की तेरी कटुता को मधु समझ खा जाते हैं,
अपनी सूनी आँखों से आँसू भी पी जाते हैं,
तेरे जीवन की खुलती तुरपाई,
वो बिना बताए सी जाते हैं।

-- मुकुंद केशोरैया

Tuesday, January 25, 2022

तेरा वैभव अमर रहे

सौ बार जियूँ, सौ बार मरूँ,
न मिले मोक्ष तो भी न डरूँ।
आन पड़े जब आन पर,
निज प्राण तुरत न्योछावर करूँ।

सांसारिक क्षणिक प्रलोभन क्या,
निज चमक-दमक में शोभन क्या,
यदि मिल जाए सम्पदा अपार,
फलता-फूलता हो व्यापार,
तब भी ठुकरा दूँ सकल संसार।

लक्ष्य मात्र एक रहे,
मैं दिन चार रहूँ ना रहूँ,
माँ तेरा वैभव अमर रहे।

-- मुकुंद केशोरैया

Saturday, January 22, 2022

फ़न की ताक़त

मैं अपने फ़न को आवाज़ बना लूँगा,
कलम को अपनी साज़ बना लूँगा,
ग़र दफ़न भी कर दोगे मेरे जिस्म को,
मैं अपनी रूह को अल्फ़ाज़ बना लूँगा।

मेरी नाकामी पे हंसने वालों,
मैं अपने अंजाम को आग़ाज़ बना दूँगा,
गिर कर उठने को अपना अन्दाज़ बना दूँगा,
ग़र ज़मींदोज़ भी कर दोगे मिट्टी में मुझे,
मैं इसी मिट्टी से अपना ताज बना लूँगा।

मैं अपने अहसासों को अरबाज़ बना लूँगा,
तहरीर को अपनी दिलेर-जाँबाज़ बना लूँगा,
ग़र छीन भी लोगे मेरे चेहरे से हँसी,
मैं अपने अशआर को ख़ुशमिज़ाज बना लूँगा।

-- मुकुंद केशोरैया

Friday, January 21, 2022

इस दर्द की कोई शाम नहीं

इस दिल को कहीं आराम नहीं,
इस दर्द की कोई शाम नहीं,
रह-रहकर हूक उठती है,
ज़ुबान हो मूक सब सहती है।

क्या मैंने पाया, क्या गँवाया है,
ग़म की दुनिया में बस दर्द कमाया है,
चीर दे जो सीने को ऐसा फ़साना है,
झूठे हैं सारे कहकहे, हँसना-हँसाना है।
            इस दिल को कहीं आराम नहीं,
            इस दर्द की कोई शाम नहीं।

किसी से गिला ना कोई शिकवा है,
मेरी क़िस्मत ही जब मुझसे रुसवा है,
मेरी फ़ितरत तो यूँ ग़मगीन न है,
पर ज़िंदगी बेहद संगीन यहाँ है।
            इस दिल को कहीं आराम नहीं,
            इस दर्द की कोई शाम नहीं।

ख़ामोश रहता हूँ, दर्द से बिलबिलाता हूँ,
मसनूयी मुलाक़ातों की ख़ातिर खिलखिलाता हूँ,
खुद चेहरे पे अपने नक़ाब रखता हूँ, इसलिए
हिचक से मिलता औ पहले परखता हूँ।
            इस दिल को कहीं आराम नहीं,
            इस दर्द की कोई शाम नहीं।

ये क़िस्सा कहाँ समझेगा कोई ज़माने में,
सब हैं मसरूफ अपना हिसाब लगाने में,
मेरे क़र्ज़ की किश्तें भला कोई क्यूँ भरेगा,
मेरे मर्ज़ की दवा भला कोई क्यूँ करेगा।
            इस दिल को कहीं आराम नहीं,
            इस दर्द की कोई शाम नहीं।

-- मुकुंद केशोरैया

Tuesday, January 11, 2022

गीत

हार को जीत अपनी बनाता रहा,
राह के पत्थरों से द्वार सजाता रहा,
जीना जब भी दूभर सा लगने लगा,
करके एक-एक कदम बढ़ाता रहा।

शब्द-सागर में गोते लगाता रहा,
चुनके मोती कुछ कंकड़ भी लाता रहा,
डूबने सा लगा जब भँवर जाल में,
तिनकों को सहारा बनाता रहा।

शब्द भी जब अर्थ खोने लगे,
भाषा भी जब व्यर्थ लगने लगे,
शून्य से जब विमर्श होने लगे,
भावनाओं को समर्थ बनाता रहा।

जीवन आकर्षण जब-जब मोहने लगा, 
विरह की सोच दिल भी रोने लगा,
मन भी धीरज धीरे से खोने लगा,
मन में आशा के मनके पिरोते रहा।

-- मुकुंद केशोरैया

Thursday, January 6, 2022

पुरुषार्थ

भिक्षा में नहीं यहाँ अधिकार मिलता है,
लाख करो मिन्नतें कहाँ निर्दयी पिघलता है,
चंद टुकड़ों में बिक जाता हो ईमान जहाँ,
वहाँ कौन शोषित की पीड़ा समझता है।

पर पुरुष के पुरुषार्थ से पिघलता पाषाण भी,
कर्मठता से होते वश में मृत्यु भी प्राण भी,
निष्कपट कर्म करता चले जो नर,
पुकार सुन उसकी उतर आते भगवान भी।

कर्म ही जिसका एकमात्र सखा हो,
प्रलोभनों से बचकर ध्येय निश्छल रखा हो,
जानता है मोल वही मधु का,
जिसने पग-पग घूँट कड़वा चखा हो।

प्रकृति न नियम विरुद्द आचरण करती है,
वह तो सदा पुरुषार्थ का ही वंदन करती है,
जो रखता विश्वास अटूट अपनी भुजाओं पर,
उस वीर के कपाल ही मुकुट धरती है।

वीर पुरुष न किसी की राह तकता है,
वह अपने मार्ग, अपनी लीक चलता है,
प्रलोभनों से न होता विचलित वो,
पाँव से अपने पत्थर पे चिन्ह गड़ता है।

-- मुकुंद केशोरैया