साक्षी है इतिहास वीरों की अमर कहानी का,
मिट नहीं सकता वो अध्याय क़ुरबानी का,
लाख झूठ घोल दो तुम मुगलई विचारों का,
मिटा न सकते सत्य, है असर संस्कारों का.
जब तक गगन में चाँद, तारे, और खून में रवानी है,
जब तक उद्धघोष हर-हर महादेव और समर भवानी है,
तब तलक दुनिया कहती रहेगी यह ऐसी अमर कहानी है.
जो मज़हबी आंधी न रुकी रोमन, फ़ारसियों से,
मात्र दो दशक में भर उठी थी धरती चीत्कारों से,
कराहने लगा था जब यहूदी, ईसाई, पारसी अपने घावों से,
बढ़ के आगे थाम लिया था, शोला भरे अंगारों से.
सिकंदर महान कहने वालों, अकबर के गुण गाने वालों,
यदि किसी दिन न्याय करोगे, लिखे झूठ पे पुनर्विचार करोगे,
यदि किसी दिन सत्य लिखोगे, प्रामाणिक प्रत्यक्ष कहोगे,
लेखनी स्वतः सूर्यवंशी यशगान कर जाएगी,
कलम तुम्हारी सर्वप्रथम बप्पा रावल लिख जाएगी.
कहानी प्रारम्भ होती एक अबोध बालक से,
खो दिया असमय परिवार, रहा वंचित पालक से,
ब्राह्मणी ने संभाला, भीलों ने किया बड़ा,
विंध्याचल के पर्वत में, संघर्षों ने किया कड़ा.
राजवंशी होकर भी जंगल-जंगल ख़ाक छानी,
वीरता व विनम्रता का मेल जैसे आग-पानी.
देखभाल कर गायों की, रोज चराने जाता था,
दिन ढले, गौधूलि में, लौट घर को आता था.
प्रश्न किया जब मालिक ने कि दूध कहाँ जाता है,
पांच गाय में, चार का ही क्यों नज़र हमें आता है.
लगा प्रश्नचिह्न निष्ठा पर, चुभते शर से आक्षेप,
हो उठा उतावला करने को, गहन राज का पटाक्षेप.
पड़ी दृष्टि एक गाय पर,
जो दिव्य प्रतीत होती थी,
चंचल विचरण ना कर,
भावातीत सी रहती थी.
वो गाय उसे लुभाती थी,
पर दूध नहीं दे पाती थी.
बाकी तो चारा खाती थीं,
पर वह दूर निकल कहीं जाती थीं .
समय बीता, रहस्य गहराया,
नवयुवक के मन में कोतुहल सा छाया.
एक दिन हो अधीर,
चल दिया गाय के पीछे,
बनाने को इतिहास,
भविष्य था उसको खीचें .
कर गया प्रवेश गुफा में,
जानने को रहस्य वो गूढ़,
जो दृश्य देखा सामने,
रह गया खड़ा किंकर्तव्यविमूढ़ .
थी खड़ी गाय पिंडी के ऊपर,
थन से दूध बहाती थी,
कर दुग्ध-स्नान,
वो एकलिंग पिंडी श्वेताम्बर हुए जाती थी.
यह कैसा दृश्य,
कैसी विचित्र माया है,
जाने किस प्रयोजन हेतु
भगवान ने स्वयं बुलाया है.
फिर आकाशवाणी के स्वर में
बोल उठे स्वयं भगवान,
"आ गए एकलिंग के दीवान"!
वहीं हुए दर्शन हरित ऋषि महान के,
दिए आशीर्वचन अमर यश वरदान के,
बोले: तुझे पुकार रहा चित्रकूट,
मेवाड़ी शासक राजपूत.
तू कालभोज अति विकराल है,
अरि-दल का महाकाल है,
सूर्य-वंश की शान है,
राजपूती आन है.
तेरे कहर से काँपेगा,
म्लेच्छ दानव का कलेजा,
ले साथ भीलों को,
अब तू मेवाड़ चले जा.
अपनी धरा पे अपना शासन,
ये कार्य महान होगा,
पीढ़ियों तक तेरे कुल का
यशगान, गुणगान होगा.
न सर झुकेगा कभी
जुल्मी आततायी के सामने,
अड़ा रहेगा तेरे वंश का कोई
भगवा ध्वज को थामने.
भरकर ह्रदय में भक्ति को,
जगा सूर्यवंशी शक्ति को,
गर्जन कर गंभीर चला,
स्वतन्त्रता का मंत्र फूँकने,
ऐसा वीर कालभोज चला.
शक्ति के आह्वान में,
इस पुण्य-पावन कार्य में,
संगठन अनिवार्य होगा,
सफलता चूमेगी कदम,
जब नेतृत्व सर्वस्वीकार्य होगा.
है हीन भाव पृथकता में,
और शक्ति चमकती एकता में.
पर एकता की राह,
कहाँ इतनी आसान है,
बन चुनौती सामने आता,
सबका अभिमान है.
दीन-हीन साथ काम करते,
बड़ी आसानी से,
आते हैं वीर साथ मगर,
बड़ी परेशानी से.
पर असंभव भी संभव होता
जब लक्ष्य महान होता है,
बाकी बातें गौण हो जाती,
जब राष्ट्र गुणगान होता है.
पर नहीं है ये काम उसका,
जो सिर्फ युद्ध में जूझता है,
विजय दासी उसकी,
जो रणनीति भी बूझता है.
कालभोज ने रणनीतिक कौशल से,
राजपूतों को एक किया,
ले साथ भीलों को अपने,
संगठन खड़ा विशेष किया.
तब जाकर चित्तौड़ दुर्ग पर,
विजय पताका फहराई,
वीर सिसौदिया राजवंश से,
मेवाड़ी मिटटी इठलाई.
समय रहेगा साक्षी,
यह परचम नहीं यहाँ रुकेगा,
अफ़ग़ान, ईरान तक राजपूती ध्वज फहरेगा.
आठवीं शताब्दी का चौथा दशक,
था लौट चुका कासिम, लिए हार की कसक.
पर खलीफ़ा की भूख न मिटती थी,
ललचाई नजरों से सोने की चिड़िया दिखती थी.
उम्मायद की अगली उम्मीद थी अल-जुनैद,
जो सिंध से आगे था आ पहुंचा,
मज़हबी जूनून का सैलाब,
हिन्द के दरवाज़े आ पहुंचा.
सिंध में हुई हैवानियत की खबर आग की तरह फैली,
महिलाओं, बच्चों पर हुए ज़ुल्म की दुर्गन्ध हवा में तैरी.
भांप चुका था कालभोज, वहशी दरिंदों की फितरत,
राजा दाहिर की मौत, महिलाओं की लुटती इज़्ज़त.
कर लिया था प्रण, सेना थी जुटाई,
करने को सर्वस्व न्योछावर,
वीरों ने थी कसम खाई.
अद्भुत एकता की नींव उस समर ने डाली,
संयुक्त सेना की कमान कालभोज ने संभाली.
नागभट्ट, पुलकेशिन, मौर्य, गुर्जर, प्रतिहार,
मिलकर सबने किया आततायी का संहार.
टूट गए खलीफ़ा के हिन्द विजय के भ्रम,
देखा न था, अरबों ने कभी ऐसा शौर्य-पराक्रम.
वीरता ही न थी केवल जो करती शत्रु को अचंभित,
महिलाओं, बच्चों को अभयदान से युद्ध-भूमि हुई सुशोभित.
युद्ध में भी कालभोज ने धर्म-पथ से मुँह न मोड़ा,
शत्रु-दल की महिलाओं को दे जीवनदान छोड़ा.
पर शत्रु था पत्थर-दिल, जिसका कलेजा न पिघला था,
करने हिन्द को फतह, फिर अल-हाकिम को भेजा था.
छिड़ा भीषण संग्राम, पर हुआ वही परिणाम, जो होना था,
मेवाड़ी शेर के आगे, हाकिम को कुत्तों की मौत मरना था.
अबकी बार कालभोज ने लिया था मन में ठान,
बार-बार के आतंक का करना है स्थायी समाधान.
ख़त्म होगा बार-बार के आतंक का बखेड़ा,
घुस घर में दुश्मन के दूर जा खदेड़ा.
सिखाने शत्रु को सबक, सेनाएं ईरान तक चली थीं,
पुनः एक सूर्यवंशी ने पढ़ाया पाठ, भय बिनु होई न प्रीति.
ग़ज़नी, कंधार, तुरान और ईरान,
पड़ी जिधर कालभोज की दृष्टि, हो गया सब वीरान.
ना विस्तारवाद, ना बलात धर्म-परिवर्तन था,
केवल मात्र मातृभूमि की सीमाओं का रक्षण था.
वापिस लौटते, कालभोज ने चौकियों का किया निर्माण,
सदियों तक जिसका शत्रु ने भयक्रांत हो किया सम्मान.
हर सौ मील पर एक चौकी सीमा सुरक्षा प्रहरी थी,
कौन उठेगी आँख उस तरफ, जहाँ राजपूती सेना ठहरी थी.
था परिणाम, उन सैनिक छावनियों का,
राजपूती वीरों की चेतावनियों का,
जो थम गया अरबी खलीफा का विजय-रथ
आया नहीं कोई हमलावर अगले तीन सौ वर्षों तक.
अंकित है इतिहास के माथे पर बिंदी वो,
है प्रमाण बप्पा की बनाई रावलपिंडी वो.
मज़हब, नाम, सीमायें बदलने से इतिहास कहाँ बदलता है,
छा जाये अँधेरा भले कुछ क्षण, सूरज फिर भी चमकता है.
अदम्य साहस, अटल निश्चय, अध्भुत पराक्रम,
कालभोज ने आरम्भ किया मेवाड़ी वंश का अजय क्रम.
मेवाड़ी आन का आधार था वो,
राजपूती शान का श्रृंगार था वो,
काँपता था शत्रु जिसके नाम-मात्र से,
कर दिया वंचित क्यों इतिहास को,
ऐसे महनीय पात्र से.
संसार में ना मिलेगा ऐसा राजवंश कहीं,
एक सहस्त्राब्दी तक न झुका जो कहीं,
हाँ, वह वंश जन्मा है यहीं,
बप्पा, रतन सिंह, कुम्भा, सांगा, प्रताप जिसके चमकते सितारे हैं,
स्वयं एकलिंग भगवान ने इस धरती पे उतारे हैं
यह सारे देव-तुल्य राष्ट्र-नायक हमारे हैं.
अब कथा ये उनकी तुमको सुननी पड़ेगी,
बिखर चुके हैं मोती जिसके, वो माला बुननी पड़ेगी,
अब न सत्य का गला घोंटा जा सकेगा,
अब न सूर्यवंशियों का रश्मिरथ रोका जा सकेगा.
चमकता है वो ऐसे जैसे सूर्य की ज्योति हो,
स्वयं जिससे भारत माँ गौरवान्वित
होती हो,
जैसे हो एकलिंग पर सुशोभित रोली-चावल,
ऐसा था वो मेवाड़ी प्रथम वीर बप्पा रावल.
-- मुकुंद केशोरैया