ख़ौफ़ज़दा करने कई दफ़ा आई,
गौर से देखा तो वो न थी,
उसकी आहट थी आई,
रूप बदल कर आफतें बहुत सी आईं,
न आईं तो बस मौत न आई।
गौर से देखा तो वो न थी,
उसकी आहट थी आई,
रूप बदल कर आफतें बहुत सी आईं,
न आईं तो बस मौत न आई।
इम्तिहाँ इतने दिए मैंने कि इन्तिहाँ न रही कोई,
इतनी दफ़ा गिरा कि अब गिरने को ज़मीं न बची कोई,
अब पैरों के छालों को नहीं, हाथों में
किस्मत के बने जालों को सहलाता हूँ,
अब दर्द न सहूंगा ताउम्र, उखड़ जाएँगी साँसें जल्दी,
इस तरह मन को अपने बहलाता हूँ।
मेरी तन्हाई से कभी रूबरू हो न सकी ये महफ़िल,
मेरा दर्द अंदर सिमटता रहा, मेरी आवाज़ बाहर घुटती रही,
मेरी ख़ामोशी पर उज्र न करो, मेरे जज़्बात पिन्हां रहने दो,
मत बांधो घाट मेरे साहिल पे, इस दरिया को तनहा बहने दो।
मेरा दर्द अंदर सिमटता रहा, मेरी आवाज़ बाहर घुटती रही,
मेरी ख़ामोशी पर उज्र न करो, मेरे जज़्बात पिन्हां रहने दो,
मत बांधो घाट मेरे साहिल पे, इस दरिया को तनहा बहने दो।
गालियां खाना शग़ल है मेरा, न रोको ज़माने को,
कबूल है हर जुर्म मुझे, उन्हें खुल के कहने दो।
उनकी अदालत में पैरवी करूँ, मुझे वो हक़ अदा ही नहीं,
मेरी ज़बान में वो लफ़्ज़ नहीं, मेरे साज़ में वो सदा ही नहीं।
कबूल है हर जुर्म मुझे, उन्हें खुल के कहने दो।
उनकी अदालत में पैरवी करूँ, मुझे वो हक़ अदा ही नहीं,
मेरी ज़बान में वो लफ़्ज़ नहीं, मेरे साज़ में वो सदा ही नहीं।
मैं अपनी नादानियों में मगरूर हुए बैठा हूँ,
या ज़माने के ज़ुल्मों से मजबूर हुए बैठा हूँ,
बैठा हूँ सजा पाके, क्या है ख़ता पता ही नहीं,
और तुमको समझा सकूं, ऐसी कोई तरकीब नहीं।
या ज़माने के ज़ुल्मों से मजबूर हुए बैठा हूँ,
बैठा हूँ सजा पाके, क्या है ख़ता पता ही नहीं,
और तुमको समझा सकूं, ऐसी कोई तरकीब नहीं।
ये दर्द मेरी ज़िन्दगी भर की कमाई है,
ये मंज़िल मैंने बड़ी मुश्किल से पाई है,
कैसे इक पल में इसको फ़ना कर दूँ,
जो मिले रहमतें ज़माने भर की इसके बदले,
खुद आगे बढ़ के सबको मना कर दूँ।
--मुकुंद केशोरैया
No comments:
Post a Comment