मैं तेज पुरुष, मैं दीप्त ज्योति, मैं उद्दाम ज्वाल सा जलता हूँ,
मैं लहरों पे सवार सागर में अठखेलियाँ भरता हूँ,
मैं बादलों पे चढ़ बवंडर से होड़ करता हूँ,
मैं घाम में जल पावक से मेल करता हूँ।
मैं लहरों पे सवार सागर में अठखेलियाँ भरता हूँ,
मैं बादलों पे चढ़ बवंडर से होड़ करता हूँ,
मैं घाम में जल पावक से मेल करता हूँ।
मुझको न आकांक्षा तट से नीर भरूँ मैं,
प्यारा मुझको गहरा सागर चाहे डूब मरूँ मैं,
जहाँ बरसे दुःख के बादल वहीं ठाँव बनाऊँ मैं,
बीच समंदर गहरे जल में एकल नाव चलाऊँ मैं।
मुझको क्या आज गिरूँ या कल गिर जाऊँ मैं,
जन्मा जिससे उस माटी में चाहे जब मिल जाऊँ मैं,
स्वच्छंद, स्वतंत्र, सृजन के गीत सुनाऊँ मैं,
संयमित, संकुचित, बनी लीक से ना प्रीत लगाऊँ मैं।
-- मुकुंद केशोरैया
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