पिछले कुछ समय से स्वतंत्रता संग्राम के योद्धाओं को वह सम्मान दिया जा रहा है जिसके वो हक़दार हैं। इसमें महात्मा गाँधी के अलावा और सेनानियों के योगदान को भी याद किया जा रहा है। महात्मा गाँधी निश्चित तौर पर न सिर्फ़ भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के, बल्कि २०वीं शताब्दी के सबसे प्रभावशाली व प्रतिष्ठित व्यक्तित्व में से एक हैं। भारत की स्वतंत्रता के पश्चात विश्व भर में हुए अनेकानेक आंदोलनों में गाँधी का प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखायी पड़ता है, चाहे वो अमेरिकी सामाजिक कार्यकर्ता मार्टिन लूथर किंग हों या दक्षिण अफ़्रीकी धार्मिक व मानवाधिकार कार्यकर्ता डेसमंड टूटू। अनेक देशों में राजनीतिक व सामाजिक आंदोलन आज भी गाँधी के दिखाए रास्ते पर चल रहे हैं।
आज़ादी के बाद के कई दशकों में गाँधी की स्मृति में अनेकानेक कार्य किए गए, जिसमें सबसे अधिक व सबसे आसान कार्य था सड़कों व सरकारी प्रतिष्ठानों का गाँधी के नाम पर नामकरण करना। गाँधी की शिक्षाओं को सरकारी नीतियों में ढालना एक चुनौतीपूर्ण कार्य था जिससे सभी सरकारें बचती रहीं, इसलिए नामकरण का लोकलुभावन तरीक़ा अपनाया गया। आज यदि देखा जाए तो गाँधी के नाम पर ही देश में सबसे ज़्यादा सड़कें व सरकारी प्रतिष्ठान हैं। यह स्वाभाविक भी है। स्वतंत्रता संग्राम के अन्य सेनानियों को भी वही मान्यता, वही सम्मान, वही प्रतिष्ठा मिलनी चाहिए इसमें कोई संदेह नहीं है, परंतु जिस प्रकार सूर्य के सामने बाक़ी सितारे छिप जाते हैं, उसी प्रकार एक समय, एक काल में जीवित रहे व्यक्तियों में कोई सूर्य ज़्यादा चमकता प्रतीत होता है। अब इसमें समस्या कहाँ आती है, इसको एक उदाहरण से समझा जा सकता है - भारतीय क्रिकेट के 1990 व 2000 के दशक का सबसे जाना-पहचाना नाम सचिन तेंदुलकर है। एक समय ऐसा था जब सचिन के साथ टीम में राहुल द्रविड़, सौरभ गांगुली व वी वी एस लक्ष्मण जैसे महान खिलाड़ी भी होते थे। पर उनके योगदान को शायद वो श्रेय नहीं मिला जिसके वो हक़दार थे। ये शायद ग़लत है पर स्वाभाविक भी है (आख़िरकार सचिन का रेकोर्ड सबसे बेहतर है)। पर स्थिति यहीं तक रहे तो भी ठीक है। समस्या तब शुरू होती है जब सचिन तेंदुलकर के बच्चों को राहुल द्रविड़ और सौरभ गांगुली से महान बताया जाने लगे, और उनके नाम पर स्मारक बनाए जाने लगे। बिलकुल ऐसा ही कुछ, पिछले कई दशकों से होता आ रहा है। एक परिवार पीढ़ी दर पीढ़ी अपने ही नामों पर स्मारक बनवाए जा रहा है।
आज़ादी के कई दशक बाद तक हम सरदार पटेल, सुभाष चंद्र बोस, वीर सावरकर आदि को वो सम्मान और पहचान नहीं दे सके जो हमने जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी और राजीव गाँधी को दी। देश की प्रगति में इनका भी योगदान रहा है, पर क्या इनका योगदान प्राचीन भारत के अन्य महान व्यक्तियों से ज़्यादा है? भारत जैसा विशाल और प्राचीन राष्ट्र किसी एक परिवार की बपौती नहीं हो सकता। क्या ये शर्म की बात नहीं कि एक ऐसा देश जिसका इतिहास पाँच हज़ार साल से भी पुराना है उस देश की राजधानी के हवाई अड्डे का नाम इंदिरा गांधी के नाम पर है। क्या हमारे पाँच हज़ार साल के इतिहास में इंदिरा गाँधी सबसे महान व्यक्तित्वों में से एक हैं? थाईलैंड की राजधानी बैंकौक के हवाई अड्डे का नाम है स्वर्ण भूमि हवाई अड्डा। सोने की चिड़िया तो हमारा देश था, पर हम उसे भूल बैठे हैं। देश के हर शहर में इंदिरा चौक, राजीव चौक हमारे समृद्ध इतिहास की अन्य महान शख़्सियतों को मुँह चिड़ा रहे हैं। ज़िलों के सरकारी कार्यालयों के नाम राजीव भवन, इंदिरा भवन और जवाहर भवन हैं। क्या Administrative, Bureaucratic क्षेत्र में देश के इतिहास में कोई और प्रतिष्ठित व्यक्ति नहीं है? क्या हम इनका नाम इतिहास के महानतम राजनीतिक गुरुओं में से एक कौटिल्य या सर्वकालिक महानतम राजा चंद्रगुप्त विक्रमादित्य के नवरत्नों के नाम पर नहीं रख सकते?
अब समय आ गया है जब हमें आज़ादी के सभी महानायकों को उचित सम्मान दिलाना चाहिए। ऐसा होने पर हम decolonization की तरफ़ एक ठोस कदम बढ़ाएँगे। लेकिन हमें decolonization से भी परे देखने की आवश्यकता है। अभी हमारी दृष्टि britishers के दृष्टिकोण से बनी हुई है, यही कारण है हमारे ज़्यादातर नायक स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास से जुड़े हुए हैं। जिस दृष्टि से हम स्वयं को देखते हैं, दुनिया भी हमें वैसी ही दृष्टि से देखती है। अभी हमारी नज़रिये में एक bias (दोष) है जिसको Recency bias कहते हैं। भारत इसी Recency bias से गुजर रहा है, जहां हम आज़ादी तक के कालखंड को तो महत्व देते हैं, उससे पहले के इतिहास को नहीं। हज़ारों वर्ष के इतिहास के लम्बे कालखंड में सौ-दौ सौ वर्ष कोई बहुत अधिक समय नहीं होता। हमारे इतिहास की हाल की सबसे महत्वपूर्ण घटना निस्संदेह स्वतंत्रता है, परंतु भारत अमेरिका या यूरोप की तरह कोई 500-1000 वर्ष पुराना राष्ट्र नहीं है। हमारे इतिहास में और भी महान घटनाएँ घटित हुई हैं, एक से बढ़कर एक महान हस्तियाँ यहाँ रहीं हैं, जिस सब से हम मुँह मोड़े बैठे हैं।
हमारे मन में, हमारे आचार-विचार में, हमारे सामाजिक-राजनीतिक विमर्श में स्वतंत्रता संग्राम का एक hangover दिखाई देता है, जिसके कारण हम अपने इतिहास में अपनी आज़ादी से पीछे के दौर में नहीं जा पाते हैं। अन्यथा क्या कारण है कि आदिगुरु शंकराचार्य जैसे सर्वकालिक तेजवान और प्रखरशील व्यक्तित्व को हमने उचित पहचान नहीं दी। जब हम ही उन्हें सम्मान नहीं दे सके, तो दुनिया क्या उनके ज्ञान को स्वीकारेगी। क्यों दिल्ली की किसी लोकप्रिय सड़क या संस्था का नाम उनके नाम पर नहीं? क्यों ऋषि वशिष्ट, विश्वामित्र, अगस्त्य आदि का नाम देश की राजधानी या किसी और बड़े शहर में दिखाई नहीं देता? जब कोई विदेशी पर्यटक आता है तो उसे सिर्फ़ मुग़लिया इतिहास ही दिखाई देता है, तो वो यही समझेगा कि भारत का इतिहास कुछ 600-700 वर्ष पुराना है, उससे पहले कुछ नहीं था।अब जाके शंकराचार्य की एक प्रतिमा केदारनाथ मंदिर के बाहर स्थापित की गई है, वो भी एक धार्मिक स्वरूप के तौर पर, अगर सार्वजनिक संस्था उनके नाम पर बनाई जाए तब तो तथाकथित विद्वान (woke) लोग फाँसी लगा लेंगे! (अवॉर्ड तो वापस कर ही देंगे!)
अपने प्राचीन इतिहास को पूर्ण महत्व ना देने का एक कारण तुष्टिकरण की राजनीति भी रही है।मध्य-युगीन व आधुनिक भारत का इतिहास अनेक धर्मों-सम्प्रदायों से मिलकर बना है, यह कहने में मुझे कोई संकोच नहीं है, किंतु यह भी एक सत्य है कि भारत का प्राचीन इतिहास हिंदुत्व की बुनियाद पे खड़ा है। इतिहास को बैलेन्स करने के चक्कर में हम प्राचीन इतिहास को कहीं आने ही नहीं देते। क्यों हमारे मेडिकल कोर्सेज़ में चरक, सुश्रुत, च्यवन, धनवांतरि आदि के विषय में नहीं पढ़ाया जाता, क्यों हमें engineering और architecture में सप्तऋषि, ब्रम्हगुप्त और प्राचीन वैदिक विज्ञान नहीं पढ़ाया जाता? अब ये सब हिंदू थे तो इसमें शर्म कैसी। क्या ये सत्य नहीं है कि प्राचीन भारत में हिंदू सभ्यता सबसे पहले जन्मी थी। Indonesia जैसा मुस्लिम देश तो अपने देश की national airlines का नाम 'गरुड़' रख सकता है, पर हम नहीं क्योंकि हम सेक्युलर हैं! ये क्या मज़ाक़ है! हमारे किसी medical या engineering कॉलेज का नाम इंदिरा गाँधी, राजीव गाँधी के नाम पर नहीं, और पटेल या सावरकर के नाम पर भी नहीं होना चाहिए। हमें खुली दृष्टि रखते हुए अपने पूरे इतिहास को टटोलना चाहिए और फिर किसी प्रासंगिक शख़्सियत का नाम ऐसे प्रतिष्ठान से जोड़ना चाहिए।
अब एक और उदाहरण देखिए - अंडमान निकोबार द्वीप समूह का नाम आते ही दिमाग़ में जो छवि आती है वो या तो वीर सावरकर की है या नेताजी सुभाष चंद्र बोस की। वीर सावरकर ने अंडमान की जेल में १३ वर्ष बिताए और नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने जापानी सेना के साथ मिलकर अंडमान के द्वीपों को अंग्रेजों से आज़ादी दिलायी। अब यदि आप अंडमान जाएँ तो सेल्युलर जेल के पास समुद्र के किनारे मरीना पार्क में राजीव गाँधी की विशाल प्रतिमा देख कर अपना सिर धुन लेंगे। अभी आगे और देखिए - यह प्रतिमा जिस परिसर में है, उसका नाम राजीव गाँधी वॉटर स्पोर्ट्स कॉम्प्लेक्स है। पास में ही महात्मा गाँधी मरीन नैशनल पार्क भी है। निकोबार द्वीप पर दक्षिण में भारत के सबसे आख़िरी बिंदु का नाम है इंदिरा पोईंट। यह तो वही बात हुई की जिस मैदान में कुम्बले ने १० विकेट लिए वहाँ सचिन तेंदुलकर के बेटे के नाम पर स्टैंड बना दिया! मूर्खता और चापलूसी की भी हद्द होती है!
पर अब समय आ चुका है, और इसमें लेशमात्र भी संदेह नहीं होना चाहिए कि भारत अपने वास्तविक स्वरूप को पहचानेगा। ये तो होकर ही रहेगा इसको कौन रोक सकता है। अभी जो मोदी सरकार ने शुरू किया है, ये तो सिर्फ़ शुरुआत भर है, अभी तो बहुत सी खोई पहचान पानी बाक़ी हैं, बहुत नाम भी बदले जाने बाक़ी हैं। कुछ तथाकथित विद्वान (woke) ज़रूर ज्ञान देंगे कि नाम बदलने से क्या होगा, क्या उससे कोई विकास होगा, किसी गरीब को रोटी मिलेगी। यदि आपके घर पे कोई क़ब्ज़ा कर ले और आपका नाम रावण और आपकी बहन का नाम सुपर्णखा रख दे, तो उससे आज़ाद होने के बाद आप अपना नाम पहले बदलोगे या अपना विकास पहले करोगे। स्वाभिमान पहले है, और जहां राष्ट्र के स्वाभिमान की बात हो, वहाँ तो बाक़ी अन्य सब बातें बहुत छोटी मालूम पड़ती हैं। To be continued.....
जय भारत! जय माँ भारती!
-- मुकुंद केशोरैया