Monday, April 23, 2012

निर्भय

विवशता की इस घडी में भी,
पौरुष को महसूस कर पा रहा हूँ मैं,
तोड़ रहा था जो शरीर को कल तक,
वही दर्द आज धमनियों में उफान ला रहा है.
 ऐसा नहीं है कि जीवन से घृणा है मुझे,
ये आकर्षण है मृत्यु का, जो अपने पास बुला रहा है.

खींच रहा है पास अपने वो ढलता हुआ सूरज,
अंत निश्चित है,
पर नहीं है अंश लेशमात्र भी कायरता का.
और हो भी क्यों,
जीवन भर क्षितिज कि और भागने से बेहतर है,
ढलते सूर्य की और प्रस्थान.

एक कशिश है उस ढलते हुए सूरज में,
यह जीवन से पलायन नहीं,
यह तो स्वयं को उस निराकार से एकाकार करना है.
शायद यही जीवन का मर्म है, जीवन का अर्थ है,
जीवन-मोह को त्यागना,
सफल जीवन की पहली शर्त है.